कृष्ण वियोग

श्याम गए तो गए मथुरा मथुरा न गयी वृषभानु दुलारी,

कौन सी आन रही मन में वह आन गयी मन से न उतारी,

जाकर हाल न पूँछ सकी किस हाल में है ब्रजधाम बिहारी,

प्यार के बन्धन बांध हमें किस बांध में जाके बँधे बनवारी।

पन्द्रह ही दिन बोल गए इक मास हुए पर लौट ना आए,

भेजती कोई कबूतर जो कि सन्देश यहाँ से वहाँ पहुँचाए,

कौन कमी रही प्यार में जो यदुनंदन प्यार की रीति भुलाए

जो सबको भरमा गये हैं उनको भला कौन वहाँ भरमाए।

कोई नही दिन बीतता है मनमोहन को जब याद ना आए,

काग मयूर बया बगुले बस देखते हैं किस ओर से आए,

आए जो हैं ब्रजभूमि से तो अभी राधिका की छवि देखके आए,

देख उन्हें मन नाच उठे मानो राधिका को ख़ुद देखके आए।

फूल खिले भँवरे लिपटे मकरंद भरी बगिया महकाये,

सावन के दिन भाद्र की रात आषाढ़ की दोपहरी जब आये,

धीर धरो कितना भी भले मन पे पर धीर धरा नहि जाए,

कोई कहीं से नही कहता चलो राधिका है वहाँ नैन बिछाये।

गोकुल के बिछड़े बछड़े बस व्याकुल हैं मथुरा नहि आये,

वृक्ष कदम्ब के वैसे खड़े न झुके न गिरे न मरे मुरझाये,

मौन खड़े गिरिराज वहीं यमुना उसी ओर ही नीर बहाये

भूल गए ब्रज वासी ही या ब्रजवासियों को घनश्याम भुलाये।

राधिका का उन्माद चढ़ा अब और कोई उन्माद नहीं है

राधिका हो न हो राधिका के प्रति मानस में दुर्वाद नही है

राधिका से पहले नहि था कुछ राधिका के कुछ बाद नहीं है ,

याद में राधिका है इतना बिन राधिका के कुछ याद नहीं है,

श्याम बिना नहीं राधिका तो बिन राधिका स्याम नहीं रह पाते,

श्याम में राधा नही रहती यदि श्याम वियोग नहीं सह पाते,

वृक्ष नदी तट पे रहते जलधार के साथ नहीं बह पाते।

भीतर भीतर पीर भरे पर पीर किसी से नहीं कह पाते।

आदि व अन्त अनंत में राधिका मध्य में राधिका की छवि छायी,

अर्ध्य व ऊर्ध्य प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दिशा विदिशा में वही है समायी,

जीत में हार में लाभ में हानि में राधिका राधिका ही दे  दिखायी,

नैन ही राधिका में जा बसे या कि राधिका ही हर ओर से आयी।

फूल कदम्ब के फूल उठे या कि राधिका फूल के फूल हुई है,

है ऋतुराज अनंग प्रसन्न की ये ऋतु ही अनुकूल हुई है।

पाँव रखे जिस ओर जहां उस ओर की चंदन धूल हुई है,

भूल गयी मुझे राधिका या मुझसे ही कोई बड़ी भूल हुई है।

१०

याद है तो बस राधिका राधिका और मुझे कुछ याद नही है, है बर्बाद भले यह लोक वह लोक मेरा बर्बाद नहीं

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